kartik Purnima

कार्तिक पूर्णिमा की कथा

Feb 28, 2024Soubhagya Barick

 कार्तिक पूर्णिमा को हिंदू धर्म का सबसे पवित्र महीना माना जाता है। यूँ तो पूर्णिमा प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष का पंद्रहवाँ दिन होता है लेकिन कार्तिक मास की पूर्णिमा का बहुत ही महत्व माना गया है।  
इस दिन हिन्दू धर्म में गंगा  स्नान की भी परंपरा है । गंगा स्नान करने के पश्चात सूर्य देव को अर्ध्य अवश्य देना चाहिए। मानते  हैं कि ऐसा करने से मनुष्य को अपने किये गए पापों से मुक्ति प्राप्त होती है।  कार्तिक पूर्णिमा के दिन  स्नान इत्यादि करके गरीबों को कुछ न कुछ  दान करना चाहिये।। ऐसा करने से उसका हजार गुना फल प्राप्त होता है। इस दिन बहुत सारे लोग व्रत भी करते हैं। व्रत का संकल्प लिया जाता है और फलाहार किया जाता है। 

 इस दिन भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है। कई जगहों पर भगवान श्री कृष्ण के विग्रह की पूजा की जाती है। इस विशेष दिवस पर भगवान शिव की भी पूजा करने का विधान है क्योंकि उन्होंने आज के दिन ही तारकासुर नामक राक्षस का वध किया था।

 इस दिन सूखे मेवों का प्रयोग करना बहुत अच्छा होता है। फलाहार में सिंघाड़ा इत्यादि लेना चाहिये। कई घरों में इस दिन आटे का मीठा चूर्ण भी बनाकर प्रसाद चढ़ाते हैं। चावल या मखाने की खीर का भी प्रसाद चढ़ाते हैं। कई घरों में बिना लहसुन प्याज का साधारण भोजन भी बना कर खाते हैं।

कार्तिक के महीने में उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई खाना भी वर्जित बताया गया है। कार्तिक मास के पवित्र महीने में मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए। कहा जाता है कि कार्तिक माह में भगवान विष्णु पानी में रहते हैं।

कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा

एक पौराणिक कथा के अनुसार , तारकासुर नामक एक राक्षस था ।उसके तीन पुत्र थे- तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली।  तारकासुर बहुत ही बलवान था। उसने धरती व स्वर्ग पर अपना  आतंक मचा रखा था जिससे परेशान होकर देवताओं ने भगवान शिव से उसका अंत करने के लिए प्रार्थना की । उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने तारकासुर का वध किया।। इससे देवता बड़े प्रसन्न हुए। 

उसके तीनों पुत्रों को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ और उन्होंने इसका बदला लेने के लिए ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने तीनों से वरदान मांगने को कहा।  तीनों ने ब्रह्मा जी से अपने अमर होने का वरदान मांगा।  ब्रह्माजी ने अमरता के अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा। 

इसके बाद उन तीनों ने कुछ देर तक इस पर बहुत विचार किया और फिर ब्रह्माजी से कहा- "आप तीन अलग-अलग नगरों का निर्माण करें, जिसमें सभी बैठकर पूरी पृथ्वी और आकाश में घूम सकें।"

एक हजार साल बाद जब हम मिलें तो हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं । जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण बने। उन सबकी नजर में यह एक असम्भव कार्य था।  उन्होंने  उन्हें वह वरदान ब्रह्माजी के निर्देशानुसार मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों की स्थापना की।

तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया । इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से बहुत भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए । इंद्र की बात सुन कर भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। इस दिव्य रथ की हर एक चीज देवताओं से बनवाई गई थीं। 

 चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चार घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें । भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोंक  अग्निदेव स्वयं बने। इस दिव्य रथ पर भगवान शिव स्वयं सवार हुए । देवताओं से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध करते समय प्रभु लीला से एक ऐसा समय आया जब तीनों रथ एक ही सीध में आ गए।  जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए उसी समय  भगवान शिव ने अपने बाण छोड़े और  तीनों का नाश कर दिया।  इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा था। 

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